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संगठित परिवार और एकल परिवार

संगठित परिवार और एकल परिवार 
दिनांक २६.३.२३ -
आज के स्वच्छन्द विषय पर प्रस्तुत मेरी रचना

उम्र गयी सत्पथ पर चल के, हमने आदर देना सीखा‌ था,
मात-पिता और गुरु जनो को सम्मानित करना सिखा था।

वाणी-कर्म से और भाव से सदा संयमित रहते थे,
बड़ो से पाया स्नेह सदा ही और छोटे नतमस्तक रहते थे।

आज ये भौतिकवाद है आया स्वर्थ भरा दिल है सबका,
पैसा बड़ा है परमेश्वर है ये भाव भरा दिल है सबका।

पैसे का महत्व था पहले भी पर परिवार भावना परिश्कृत थी,
संयुक्त परिवार होते थे पहले और त्याग भावना उन्नत थी।

छोटी छोटी बातों पर अब लड़कियां भी अपमानित करती  हैं,
क्यों तो दख़ल‌  दिया था हमने यह सोच शर्मिन्दगी होती है।

वृद्धावस्था तो अक्सर सहारा बच्चों से पाती है,,
कैंसे फ़िर कोई वृद्धा  ये अपमान सहन कर पाती है।

मुंह छिपा हाथों मे अपने नयन-अश्रु पी जाती है,
"माता,बच्चों को दें सद्बुद्धि" और कुछ कह न पाती है।

वृद्धा के दारुण दुख का भी तो खयाल करो थोड़ा,
वृद्धा जनो का मिले आशीष तो पथ  मे न आए कभी रोड़ा।

आनन्द कुमार मित्तल, अलीगढ़

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7 Comments

Abhinav ji

27-Mar-2023 08:51 AM

Very nice 👌

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संदेह देती हुई कविता

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Reena yadav

27-Mar-2023 06:17 AM

👍👍

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